लेखक : इंजि. शिवाजीराजे सुनिता भिमराव पाटील मास्टर कोच – जवाहरलाल नेहरू लिडरशिप इंन्स्टिट्युट, नई दिल्ली राष्ट्रीय अध्यक्ष – वीर भगतसिंग विद्यार्थी परिषद हिंदी अनुवाद : प्रा. विकास मौर्य, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, काशी उत्तरप्रदेश ;
केवल लालची नजरों से पास आने वालों की अपेक्षा सुसंस्कारी प्रेम के जरिए पास आने वाले लोगों की कद्र की जाये तो पाश्चाताप करने के मौके नहीं मिलते हैं।
ज़िन्दगी प्यार करने के लिए ही भरपूर समय नहीं है इसलिए नफ़रत करने के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल काम है।
इत्तिफ़ाक़ से जिंदगी में मिल गए अनमोल, निःस्वार्थी और प्रामाणिक व्यक्तियों की ही तरह हमें एक और चीज़ की कीमत समझनी चाहिए।
और वह चीज है ‘वक़्त’। समय बेशक़ीमती धन है।
एक मज़दूर हो या सुप्रीम कोर्ट का जज, राजा हो या रंक ; सबके ही पास समय रूपी प्रकृति प्रदत्त संपत्ति एक समान ही होती है।
एक घण्टे के साठ मिनट और एक दिन के चौबीस घंटे, इस हरेक मिनट और घण्टे का हम क्या करते हैं ?
हम इनका उपयोग कैसे करते हैं.?
इसी के आधार पर हम कहाँ पहुँचने वाले हैं, यह तय होता है।
युक्ति, पैसा, बाज़ार जैसी चीजें एक बार गँवा देने के बाद दुबारा भी कमाई जा सकती हैं।
लेकिन एक बार चला गया समय किसी को कभी वापस नहीं मिला, न ही इसे कभी वापस लाया ही जा सकता है।
जिंदगी का यही अकाट्य और कालदोष से परे सत्य है।
जन्म लेते समय किसी इंसान को यह जानकारी नहीं होती है कि यह धरती उसे कितने देर के लिए उपलब्ध रहेगी।
फ़िलहाल हम लॉकडाउन के चौथे महीने में प्रवेश कर रहे हैं।
मँब एव्हिएशन कंपनी के मंदारजी भारदे तथा भाई समान मित्र व विद्यार्थियों के प्रिय शिक्षक डॉ. विश्वधारजी देशमुख के माध्यम से प्राप्त एक रिपोर्ट के अनुसार
फेसबुक, व्हाट्सएप्प और यूट्यूब जैसी चीजों का सबसे अधिक उपयोग भारत में किया जाता है।
हम जैसे लोग इन सारे सोसल मीडिया प्लेटफार्म्स का उपयोग करते हैं।
इस रिपोर्ट की जानकारी के बाद हममें से हर एक आदमी को अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए की,
लॉकडाउन की इस तीन साढ़े तीन महीने की अवधि में हमने क्या किया.?
लॉकडाउन के पहले दिन हमारे कैरियर के लिए पूरक साबित होने वाले किसी भी क्षेत्र में
(शिक्षण, कौशल-विकास, भाषा ज्ञान, चिंतन-मनन, लेखन, सम्भाषण, आदि)
के मामले में यदि अगर हम पहली क्लास में रहे हों तो क्या अभी तक चौथी-पांचवी में भी पहुँच पाये हैं ?
दुर्भाग्य से अधिकांश लोगों के अंतर्मन से ज़वाब आएगा कि ‘नहीं’।
हमने टिकटॉक पर टाइम पास कर दिया होगा, दिन भर फेसबुक पर जूझे रहे होंगे। यूट्यूब पर फालतू के वीडिओज़ देखे होंगे, व्हाट्सएप्प पर लंबे समय तक चैटिंग की होगी।
भविष्य में जब यह अप्रिय लेकिन अनिवार्य लॉकडाउन ख़त्म होगा तो हम उसी कक्षा में होंगे जहाँ से शुरुआत हुई थी।
तब ऐसे में समय का उपयोग न करने वाले मूर्ख और नालायक़ तो हमीं हुए न।
यदि हम अपनी तुलना आज की दुनिया से करें तो क्या मिलेगा.?
भारत के युवाओं और युवतियों में पश्चिमी मुल्क़ों के प्रति भारी आकर्षण है, खासतौर पर यूरोपियन और अमरीकी देशों की ओर।
इन देशों में सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र से ही लड़के-लड़कियाँ पढ़ाई के साथ में कमाई शुरू कर देते हैं।
छोटी मोटी नौकरी करते हैं या कुछ न कुछ बेचने का धंधा शुरू करते हैं, लेकिन अपने उपयोग के लिए पैसे ख़ुद से कमाने लगते हैं।
बारहवीं के बाद की पढ़ाई का सारा खर्चा वो ख़ुद से कमाते हैं।
अगर पैसे पर्याप्त नहीं हुए तो बीच में एक साल की पढ़ाई रोकते हैं, पैसे कमाते हैं और पढ़ाई शुरू कर देते हैं।
निर्धन परिवार ही नहीं बल्कि उच्च मध्यम परिवारों से आने वाले बच्चे भी अपनी पढ़ाई इसी तरह करते हैं।
किसी बड़े और प्रसिद्ध सर्जन की लड़की या लड़के को किसी गली या किसी सुपरमार्केट में कोई काम-धंधा करते हुए आप आसानी से देख लेंगे।
इसमें न तो बाप को कोई समस्या नज़र आती है, न तो बच्चों को और न ही समाज को।
एशियाई समाजों की तुलना में वहाँ के बच्चे छह-सात साल पहले ही कमाई शुरू कर देते हैं।
उनकी यही आत्मनिर्भरता और रिस्क लेने की आदत जीवन में उन्हें कई गुना आगे ले जाती है।
हमारे यहाँ पंद्रह-सोलह तो छोड़िए बीस-बाइस साल तक के युवा भी कमाई को छोड़कर बाकी सब कुछ करते हैं।
हालाँकि इसके लिए केवल बच्चे जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि माता पिता, समुदाय और समाज जैसी सभी इकाइयां जिम्मेदार हैं।
सोचिये कि दुनिया के सबसे अधिक युवाओं वाले भारत देश में युवाओं ने अगर रोजाना तीन घण्टे भी कमाना शुरू जार दिया तो, अर्थव्यवस्था को कितनी मज़बूती मिल जाएगी।
बूट-पॉलिस से लेकर तेल-मालिश तक के चार पैसे कमाने लायक काम करने में भला शर्म कैसी।
वाइट कॉलर वाले (सफ़ेद पोश) चोरों और अपराधियों की अपेक्षा ईमानदार लोगों को समाज में मान्यता मिलनी चाहिए और उनका सम्मान होना चाहिए।
लेकिन दुर्भाग्य से जहाँ चारों ओर चोरों की जयजयकार होती है वहाँ श्रम को महत्व नहीं मिल सकता। आज ‘अर्थ’ के सिवा किसी का कोई अर्थ नहीं है।
भौगोलिक दृष्टि से धरती सूरज का चक्कर लगाती है लेकिन व्यवहारिक नजरिये से देखें तो पृथ्वी केवल पैसे का चक्कर लगाती है।
समय ही ऐसा है कि पैसों का महत्व असाधारण हो गया है।
इसलिये आर्थिक साक्षरता से कम उम्र में ही अवगत होना आवश्यक है।
पैसों की कीमत व उसका महत्व बचपन से ही समझाने के अलावा अर्थ के कार्य-कारण को समझने में हमारी पीढ़ी असफ़ल हुई है, यह हमें मान लेना चाहिए।
विद्वानों का अंदाज़ा है कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ इस एक संकल्पना के कदाचित कई नए उद्योग-व्यवसायों में बहुत से अवसर उपलब्ध होंगे।
फोन पर टाइम पास करना, बिना काम के ट्रिपलिंग करते हुए सुबह-शाम घूमना, किसी राजनीतिक विषय (जिसका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं है)
घण्टों बहस करना, पहले की असफलताओं के बारे में सोंचते हुए नकारात्मकता से ग्रसित हो जाना, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक कार्यक्रमों में अत्यधिक सहभाग की अपेक्षा हमारी जरूरत यह है
कि अधिक से अधिक पैसा कैसे कमाया जाए।
संपत्ति और निर्माण के कामों में जुड़कर हमें अमीर बनने के बारे में सोचना चाहिए। जिस राष्ट्र के युवाओं में संपत्ति-निर्माण को लेकर उदासीनता है, वह राष्ट्र कभी अमीर बन पाएगा क्या?
हमारे देश को, जो आजकल फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब और टिकटॉक का देश है
उसे आर्थिक नीतिकारों के देश में तब्दील होने की ज़रूरत है। हमारे पास समय नहीं है,
बिजनेस स्किल नहीं है,
पढ़ाई करते हैं, हमें कंप्यूटर नहीं आता, अंग्रेजी नहीं आती, मुझे किसी ने सिखाया ही नहीं, मेरे नसीब में ही नहीं है आदि अंधविश्वासों से हमें साथ में बाहर निकलना पड़ेगा।
जो गांव को अपना माने, वह गांव का हो जाता है वैसे ही जो दुनिया को अपना माने, वह दुनिया का हो जाता है। आप क्या मानते हैं, मायने यह रखता है। ग्लोबलाइजेशन एक मानसिक अवस्था है।
कोरोना के कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में बड़ा परिवर्तन आने की सम्भावना प्रबल है।
पुरानी आर्थिक सत्ताएं हो सकता कि रास्ते पर आ जाएं और नई आर्थिक शक्तियों उभरने को तेजी से मौके मिलें।
बीते तीस सालों में चीन ने अपने यहाँ हर तरह की चीजें बनाई हैं और दुनिया भर ने उसे ख़रीदा भी है।
हमारे खेतों में क्या उगता है से अधिक जरूरी यह जानना हो गया है कि बाजार में क्या बिकता है। ख़ुद में परिवर्तन लाना,
विज्ञानवादी बने रहना, सकारात्मक रहना, हमेशा नई चीजों को सीखने की इच्छा रखना यदि हमने शुरू कर दिया, तो दुनिया के बाज़ारों में बिकने वाली वस्तुएं हम भी बना सकते हैं, वह भी शत प्रतिशत।
